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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता १.१

धृतराष्ट्र उवाच :

धर्म क्षेत्रे कुरु कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ॥
मामकाः पाण्डवाश्चैव किं कुर्वत संजयः ॥१॥

धृतराष्ट्र उवाच : ( ध्रितराष्ट्र ने कहा )

धृतराष्ट्र बोले - धर्मं के क्षेत्र - कुरुक्षेत्र में - युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए - मेरे - व पांडु के भी ( पुत्रों ने ) क्या किया - हे संजय ?

अब - जो पहली बात मेरे मन में आई - वह है - कि गीता जैसे महान ग्रन्थ का आरम्भ धृतराष्ट्र के नाम से क्यों ? गीता जैसी पुस्तक - जो लोगों का मार्गदर्शन करे - उसकी शुरुआत धृतराष्ट्र से? क्या लोगों को उनके व्यवहार से कुछ सीखने मिल सकता है? क्या वेदव्यास जैसे महान ज्ञानी - जिन्होंने गीता , महाभारत , वेद , भागवतम आदि की रचना की ,यह नहीं समझते होंगे?

मुझे लगता है कि - क्योंकि गीता की रचना कलियुग की शुरुआत से एक ही पीढ़ी पूर्व हुई है (कलियुग श्री परीक्षित महाराज के काल में आया - जो की अभिमन्यु एवं उत्तरा के पुत्र हैं, जिनकी रक्षा माता के गर्भ में ही श्रीकृष्ण ने की थी ) तो मुझे लगता है कि इस कलियुग में हम भी अपनी इच्छाओं से अंधे हैं - जैसे धृतराष्ट्र अपने बेटे दुर्योधन के प्यार में अँधा था - और महाभारत की कथा हमें बताती है कि ऐसे अंधे प्यार के कैसे कैसे अंजाम देखने पड़ सकते हैं !!

इसीलिए शायद वेद व्यास जी ने गीता की शुरुआत धृतराष्ट्र के नाम से की होगी।

और अब ज़रा धृतराष्ट्र की बात पर ध्यान दे लें ... धर्म के क्षेत्र -- इससे तो लगता है कि धृतराष्ट्र यही मानते थे कि मेरे बेटे धर्मं के रास्ते पर हैं - क्योंकि वे पांडवों को तो धर्म के रास्ते पर कह नहीं रहे हो सकते - नहीं तो महाभारत का युद्ध हुआ ही ना होता!!! तो धृतराष्ट्र चाहे जितना इतिहास से कहते रहें कि मैं तो शांति ही चाहता था - पर उनका पहला वाक्य ही बता देता है कि वह क्या सोचते थे - कि मेरे पुत्र धर्मं के मार्ग पर हैं| इसके आगे वे कहते है - कुरुक्षेत्र - अर्थात कुरुओं की भूमि -- जिस पर पांडव बाहरी लोग हैं - यह तो हम कुरुओं की भूमि है । फिर कहा है - युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे - मेरे शब्द बताता है कि उन्हें अपने ही पुत्र प्रिय थे --- फिर उन्हें याद आता है कि मैं तो यहाँ पक्षपाती दिखूंगा इतिहास की नज़रों में - तो कहते है कि पाण्डु के पुत्रो ने भी क्या किया । मुझे लगता है कि इससे बेहतर शुरुआत हो ही नहीं सकती थी - यह सारी पृष्ठ भूमि को एक श्लोक में समेट लेती है - कि कैसे एक अँधा राजा (मैं शरीर के अंधेपन की नहीं, मन के अंधेपन की बात कर रही हूँ , और राजा का अर्थ सिर्फ एक मोनार्क ही नहीं है - एनी टाइप ऑफ़ हेड ऑफ़ स्टेट - चाहे डेमोक्रटिक ही हो - यदि अपने लाभों के लिए अँधा हो - वोटों के प्रेम में ही सही - तो वह राष्ट्र को इस स्थिति तक ले आएगा )

मैं नहीं कह रही कि धृतराष्ट्र गलत हैं या सही | वे इतना जानते हैं कि मैं बड़ा था तो मैं राजा होता - और मेरे बाद मेरा बड़ा बेटा दुर्योधन । क्यों युधिष्ठिर और दुर्योधन में तुलना की जाए? क्या कभी किसी ने तुलना की अयोध्या के राज्य के बारे में कि वह राम के बड़े पुत्र को मिले या भरत के बड़े पुत्र को ? यदि मैं अँधा था भी , तो मेरा पुत्र तो नहीं - उसे किस बात की सजा मिले? यह बात और है कि यह युद्ध इसलिए हो ही नहीं रहा कि हस्तिनापुर किसे मिले - अब विभाजन हो चुका है - और पांडव अपने इन्द्रप्रस्थ को वापस मांग रहे हैं । तो अपनी जगह धृतराष्ट्र भी गलत नहीं हैं, और पांडव भी अपना ही राज्य मांग रहे हैं ।

इसके आगे कल चर्चा करेंगे - पहले अध्याय के मैं सिर्फ ३ ही श्लोकों पर बात करूंगी - उसके आगे तो दोनों सेनाओं के डेसक्रिप्शन हैं - जो मेरे लिए ज्यादा अर्थ नहीं रखते - तो शुरू के कुछ श्लोको के बाद हम दूसरे अध्याय पर चलेंगे - जो कि मेरे विचार में पूरी गीता का निचोड़ है .... सी यु फ्रेंड्स ....

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें

जारी

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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही

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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।