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बुधवार, 25 जुलाई 2012

श्रीमद्भगवद्गीता 2.14

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||

इन्द्रिय अनुभूति (और मन की भी ) - गर्मी, सर्दी,सुख और दुःख की अनुभूति कराती हैं । जैसे ये मौसम के असर आने जाने वाले हैं, स्थायी नहीं, वैसे ही सुख दुःख भी आने जाने वाले हैं । हे भारत, इनसे प्रभावित हुए बिना इन्हें सहन करना (अनुभव करते हुए भी उपेक्षा करना) सीख । 


पिछले श्लोक में श्री कृष्ण ने कहा कि जैसे जीव बदलते हुए शरीर में (पहले एक बालक शरीर , फिर युवा शरीर और फिर बूढा शरीर - शरीर तो तीनो अलग अलग हैं, परन्तु उनमे रहने वाला जीव एक ही है, समय के साथ सिर्फ शरीर बदल रहे हैं । विज्ञान के अनुसार भी हमारा शरीर हर सात वर्ष में पूरी तरह बदल जाता है ) में स्थायी रूप से (बिना किसी बदलाव के ) - अपरिवर्तित रहता है (हम आज भी वही व्यक्ति हैं जो शायद दस-पंद्रह साल पहले थे, हमारी इच्छाएं, आशाएं, प्रेम, क्रोध आदि करीब करीब वही हैं ) 

उसी तरह से मृत्यु पर भी वह जीव अपरिवर्तित ही रहता है, बस शरीर बदलता है, जैसे यह शरीर इस जीवन में लगातार बदलता रहा था । इसमें धीर जन मोहित नहीं होते (disclaimer : मैं धीर नहीं हूँ, कृष्ण कह रहे हैं कि धीर मोहित नहीं होते)) । अगले श्लोक में वे कहते हैं कि जो अपने जीवन में इस अस्पृश्य भाव को आत्मसात कर ले, वह पुरुषों में पुरुषर्षभ है - अर्थात उच्च श्रेणी का है । 

अब वे कह रहे हैं की जैसे सर्दी गर्मी के मौसम के साथ ठण्ड और गर्मी के अहसास आते जाते रहते हैं, उसमे दुखी या सुखी होने की कोई बात नहीं है , उसी तरह से जीवन में सुख और दुःख की अनुभूति कराने वाली परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं - उनमे हमें निर्लिप्त ही रहना चाहिए । 

पार्थ शिष्य है - वह सुन रहा है  ।  सुन तो रहा है, परन्तु यह उसके जीवन के सत्य नहीं बने हैं अभी । वह कृष्ण नहीं है, नारायण नहीं, सिर्फ नर है । नारायण कह रहे हैं, नर सुन रहे हैं । न पार्थ गीता से पहले मात्रा स्पर्श से अस्पृश्य था, न इसके उपरांत हुआ । हाँ, वह इस गीता अमृत के बाद अपने कर्म पथ पर चलने पर ज़रूर अडिग हो गया था, परन्तु जीवन मृत्यु के सुख दुःख से अस्पृश्य (अनछुआ) नहीं । न पार्थ, न उसकी माता ही । 

तो गीता पाठ का अर्थ यह नहीं की उसके सारे उच्च आदेशों का हम अपने जीवन में पूर्ण सामंजस्य ला ही पायेंगे, या न ला सके तो हम नीच हो जाएँगे । किन्तु इस पठन-पाठन और श्रवण से हमारे जीवन की अशुद्धियों से शुचिता की ओर अग्रसर होने की राह अवश्य खुलती है, सुपथ पर कुछ प्रगति तो होती ही है । आगे गीता में कई जगह इस पर बात-चीत है ।

अर्जुन कई तरह से पूछते हैं की हम इन सब बातों के प्रयास करें और बीच में मार्गच्युत हो जाएँ - तो क्या ? हर बार कृष्ण कहते हैं - तुम्हारे प्रयास महत्वपूर्ण हैं । सफलता या असफलता, पूर्ण लक्ष्य प्राप्ति की लिप्सा या अपूर्ण यात्रा में राहच्युत हो जाने के भय न करो - that is not your department ,it is not your worry,it is mine . तुम्हारे "योग्य" कर्म तुम्हारा धर्म हैं, परन्तु वे कर्म सफल हों या नहीं,इससे तुम्हारे कर्म का महत्त्व कम नहीं होता।

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 
जारी 

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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।
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DISCLAIMER : 
I am not able to implement all this in real life. I am a student of the Geeta, and just as normal a human being with as normal circumstances as most of the readers here (not all - saome readers may be very high level ideal persons). I am just trying to read / understand / share the Geeta's message NOT claiming to be a person with the high ideal characteristics intended in the Geeta. I am not a hippocrite, and I do know that I have my limitations and weaknesses. I know many atheist persons who present the verses of the vedas perfectly. Please do not associate me with the perfection of the Geeta (or hippocricy ) just because I am trying to share the nectar I received from it) Krishna says elsewhere in the geeta that four types of persons try to get into this study - and only the highest category are the "gyaani" category. I am not one of them.

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