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रविवार, 29 जनवरी 2012

आनंद

कहीं मंदिर बन रहा था । तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ने का काम कर रहे थे । एक राहगीर ने पहले मजदूर से पूछा -

"क्या कर रहे हो ?"
वह बड़े दुखी स्वर में बोला - "पत्थर तोड़ रहा हूँ ।" सच ही था - वह पत्थर ही तोड़ रहा था ।

दूसरे से पूछा - वह दुखी न था - उसने कहा - "आजीविका कमा रहा हूँ ।" वह बिलकुल संतुलित था - न दुखी, न सुखी । और सच ही था - वह आजीविका कमाने को ही तो श्रम कर रहा था ।

फिर तीसरे से पूछा  - वह आनंदित था - गीत गाते हुए पत्थर तोड़ रहा था । उसने अपना गीत बीच में रोक कर कहा - "मैं मंदिर बना रहा हूँ ।" आँखों में चमक थी, ह्रदय में गीत थे, और वाणी में शान्ति । निश्चित ही मंदिर गढ़ना कितना सौभाग्यपूर्ण है !! सृजन से बड़ा कौनसा आनंद है ?

जीवन के प्रति भी क्या यही तीन उत्तर हैं ? कोई पत्थर तोड़ रहा है, कोई आजीविका कमा रहा है, तो कोई मंदिर गढ़ रहा है । ............. धूप तो तीनों पर बराबर पड़ रही है - परन्तु आनंद सबके हिस्से नहीं आता । 

जीवन का आनंद जीने वाले की दृष्टी में होता है । वह भीतर है, बाहर से नहीं आता ।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

सीखे हुए उत्तर

सीखे हुए उत्तर कभी काफी नहीं होते- क्योंकि प्रश्न हमेशा बदलते रहते हैं । इस दुनिया में अगर कोई चीज़ नित्य है - तो वह है बदलाव । इस सिलसिले में एक कहानी याद आती है -

दो मंदिर थे - और एक दूसरे से कही भी सहमत न होते थे ( अक्सर ऐसा ही होता देखा जाता है - सभी कहते हैं की परम सत्य एक है - किन्तु उसे ढूँढने वाले / जानने के दावे करने वाले - कभी भी एक दूसरे से सहमत नहीं दीखते ) उनमे से किसी भी एक मंदिर वाले कभी भी दूसरे मंदिर वालों से हारना न चाहते, जहां तक हो - एक दुसरे को avoid करने का ही प्रयास करते । किन्तु बच्चे तो फिर बच्चे होते हैं न - बड़े उन्हें कितना ही बिगाड़ने के प्रयत्न करें, उन्हें बिगड़ने में समय लगता है । वे मन में प्रेम के सागर भरे आए होते हैं, जिस सागर को ये "सत्यखोजी" मार्गों वाले बड़े / समझदार जन सुखाने के प्रयास करते हैं - और यह सूखने तक जो समय चाहिए - तब तक वह बच्चा बड़ा हो गया होता है । 

तो दोनों मंदिरों के समूहों के दो बच्चे - अक्सर राह में मिलते, तो बातें कर लेते । दोनों कुछ कुछ बड़े हो चले थे, सागर सूखने लगा था - किन्तु अभी इतना भी न सूखा था की एक दूसरे से नज़र बचा कर निकल जाएँ । हाँ, एक दूसरे से जीतना है, यह भावना ज़रूर पनपने लगी थी । 

एक दिन ये दोनों बच्चे राह में मिले । एक ने दूसरे से पूछा - "कहाँ जा रहे हो ?" वह भी शायद कुछ Poetic Mood में रहा होगा - तो बोला - "जहां हवाएं ले जाएँ।" अब पहले वाले को कुछ समझ न आया, आगे क्या बात करूँ - चुप ही रह गया। (वैसे मेरी नज़र में यह पहले बच्चे की हार नहीं है - कम से कम उसने बात शुरू करने की कोशिश तो की  - दूसरे बच्चे ने - जो यहाँ जीता हुआ दीखता है - (के उसने इस को चुप करा दिया ) - उसीकी हार लगती है मुझे तो - उसने दोस्ती के राह बंद कर दी संवाद को ख़त्म कर के - पर खैर - यह एक कहानी है )

 अब यह पहला बच्चा बड़ा परेशान हुआ , वापस लौट कर मंदिर में गुरु से कहा "आज मैं उस मंदिर वाले से हार गया" - और पूरी बात बताई । अब यह कैसे स्वीकार हो  कि  हम हार गए ? गुरु को बड़ा बुरा लगा - उसने कहा - "यह तो बहुत बुरी बात है - हम हार कैसे सकते हैं ? कल फिर पूछना - वह ऐसा कहे तो कहना - अगर हवा न चलती हो - तो कहाँ जाओगे ?" 

अगले दिन फिर मुलाकात हुई - यह बच्चा तैयार था - फिर पूछा - "कहाँ जाते हो ?" लेकिन अब वह दूसरा बोला - "जहां पैर ले जाएँ " तो सीखा हुआ जवाब व्यर्थ हो गया - क्या कहे ? फिर चुप रह जाना पडा । आज तो गुरु जी को और बुरा लगा - वे बोले "कल पूछना - कभी ऐसा भी हो सकता है की पैर न रहे - तब कहीं नहीं जाओगे क्या ? और वह जवाब बदल कर जो भी और जवाब दे - उसमे इसी तरह का कुछ पूछना - की यह न हो तो क्या करोगे ? हार कर नहीं आना ।"

अगले दिन यह बच्चा पूरी तैयारी के साथ गया । alternative उत्तर भी सब सोचे हुए थे - की ऐसा घुमावदार जवाब मिला - तो ऐसा पूछूंगा । आज फिर दोनों मिले 

और इसने पूछा "कहाँ जा रहे हो ?"

दूसरा बच्चा बोला "सब्जी लेने "

....

:)

तो - सीखे हुए उत्तर अक्सर काम नहीं आते । जीतने के कोशिश अपने आप में ही हार होती है । जीतने / हारने के प्रयास ही यह कह रहे हैं की चुनी हुई राह ही गलत है - हमारी मंजिल यदि दूसरे से जीतना / उसे हराना है - तो वह प्रेम का / एकत्व का पथ है ही नहीं - हार तो हो ही चुकी । अब ऊपर से जीते या हारे - इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता ।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस की बधाईयाँ और शुभकामनायें

हम सभी को हमारे गणतंत्र दिवस की बधाईयाँ और शुभकामनायें । 

हमारा भारत,
हमारा संविधान
हमारी प्रभुसत्ता 

फिर हम क्या कर रहे हैं ?

क्या हमारा योगदान सिर्फ शिकायत / व्यंग्य / आलोचना ही होना चाहिए ? 

"यह बुरा है" --- "वह बेकार है" ----
लेकिन - सवाल यह भी पूछें अपने आप से, कि हम खुद - सिर्फ इस शिकायत के अलावा - और अपने परिवार की गुज़र बसर के अलावा - कुछ कर रहे हैं क्या स्थितियों को बदलने के लिए ? आज हममे से कितने लोगों ने ध्वजारोहण और झंडावंदन में हिस्सा लिया ? (न कि-एक दिन छुट्टी मिली है, आज घर में ही आराम हो - कह कर एन्जॉय किया ?) यदि लिया - तो क्या हम सावधान मुद्रा में खड़े थे तब ?

हम कहते हैं की शहीदों ने अपनी जानें दीं - और आज देश का हाल तो देखो !!! परन्तु हम यह चाहते हैं की उन शहीदों की तरह ही देश की सेवा करने को कोई और आगे आये - हमारे कंधे सिर्फ अपने परिवार की जिम्मेदारियों से ही थक गए हैं, देश की ज़िम्मेदारी कोई और उठाये । आइये - हम भी कुछ योगदान करें - अपना छोटा सा योगदान - हममे से हर एक अपना छोटा सा हिस्सा करे - शुरुआत हो ।

आइये, हम सभी याद करें -
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
             सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा 
               उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए 
                दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद 
               द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
बधाईयाँ
शुभकामनायें 

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

थाह है, या अथाह है ?

मेला भरा था समुद्र तट पर । विवाद था की समुद्र अथाह है, या उसकी थाह है ? है तो कितनी है ? भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, पंडित शास्त्र खोले बैठे थे । उत्तेजना थी - कौन हारेगा , कौन जीतेगा ?सागर में कौन उतरे - बस किनारे बैठे बाल की खाल खींची जा रही थी । 

कोई कहता - अथाह, कोई - थाह है । कितनी ? अब जब नापा ही न गया - कैसे कह सकते हो की अथाह है ? जिसका नाप नहीं ही हुआ - उसे अथाह कैसे कहें ? न ही थाह बता सकते हैं ।

नमक के दो पुतले भी थे वहां - उन्हें जोश आ गया। "हम पता कर के आते हैं "- कहते दोनों सागर में कूद पड़े । वे जैसे जैसे नीचे जाते - हैरान होते । जैसे नीचे जा रहे हैं - सागर का अंत तो आता नहीं - खुद ज़रूर घुलते जा रहे हैं । नमक के थे न !! कहते हैं - वे दोनों पहुँच भी गए बहुत गहरे में, पर लौटने का क्या हो ? वे तो अब समुद्र ही हो गए थे - वे तो अब थे ही नहीं । 

कई दिनों तक लोग किनारे प्रतीक्षा करते रहे - फिर वाद विवाद शुरू हो गया - थाह है या अथाह ? जो भीतर गए खोजने - वे तो खो गए । अब भी विवाद चल रहा है किनारे पर - थाह है ? या अथाह ?

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

श्रीमद्भगवद्गीता २.११

श्री भगवानुवाच् 
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादान्श्चभाषसे ||
गतासूनगतासून्श्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||११|| 

श्री भगवान् ने कहा - तू न सोचने योग्य बातों पर इतना सोचा रहा है, और पंडिताई की भाषा प्रयुक्त करता है | किन्तु जो सच ही में पंडित हो - वह तो जिनके प्राण चले गए, या जिनके नहीं भी गए, उन दोनों के ही लिए शोक नहीं करते |
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[ यहाँ यह ज़रूर कहूँगी, कि मैं भी इस गीता की एक student भर हूँ | translation और discussion कर रही हूँ, परन्तु न तो मैं कोई ज्ञानी होने का दावा कर रही हूँ, न ही कोई प्रवचनकर्ता हूँ | सिर्फ एक बहुत बड़ा खजाना मिला है गीतासागर का - तो यह उसे शेयर करने का प्रयास भर है | हो सकता है कई जगह मेरे और आपके interpretations मेल न खाएं - आपकी टिप्पणियों का स्वागत है | मैं भी सीख ही रही हूँ | चर्चा करेंगे, कि कौनसा interpretation  सही होगा |]
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अब तक हमने जो पढ़ा - वह कृष्ण गीत की भूमिका भर थी | अर्जुन का युद्ध क्षेत्र में आना, ध्रितराष्ट्र , दुर्योधन आदि की मानसिक स्थिति की और संकेत मिले | फिर अर्जुन ने दोनों सेनाओं को देखा, और अपने सम्बन्धियों / प्रियजनों के मोह वश होकर तड़पने लगा | उसकी स्थिति इतनी बुरी हो गयी, की उसके हाथ पाँव शिथिल हो गए, और गांडीव छूटने लगा | जिस महायोद्धा अर्जुन ने अनेकों युद्ध जीते, वह "प्रियजनों का हत्यारा बनूँगा" के विचार से काँप उठा | उसने कृष्ण से कहा की इस इन्द्रियों को सुखाने वाले महाशोक से मैं कभी नहीं छूट पाऊंगा , और हथियार डालने को उद्धत हो गया | पहले कृष्ण ने एक कुशल मनोवैज्ञानिक की भांति उसे व्यंग्य कर के उकसाया - जैसा साधारण स्थिति में हम करते हैं | उन्होंने उसे कायर भी कहा , और नपुंसक भी | किन्तु अर्जुन इन बातों से आगे की दवा का ज़रूरतमंद था | उसकी मानसिक स्थिति साधारण पलायन की नहीं थी, कि वह व्यंग्यों से होश में आता  |

उसका विषाद बहुत गहन था | आखिर कृष्ण को उसे जगाने के लिए . युद्धभूमि में खड़े हुए, यह परम गुप्त ज्ञान की नदी - यह गीता - सुनानी पडी - जिसे सुन कर ही उसके संशय दूर हो सके | वह विषाद से भर कर प्रभु की शरण में आया, और प्रभु ने उसे अपने ज्ञानसागर में शरण दी | तब उसका विषाद, विषादयोग में बदल गया - जो उसे प्रभु से योग की राह पर ले जाने का साधन हुआ | कृष्ण ने उसे ज्ञान, वैराग्य , भक्ति, सांख्य, निष्काम कर्म , वेदों , यज्ञों , स्थित-प्रज्ञता आदि सभी के महत्व बताये | ध्यान देने की बात है कि - यह सब नर और नारायण की लीला मात्र है - गीता अर्जुन को नहीं - बल्कि हम लोगों के लिए गई गयी है | अर्जुन नर हैं, कृष्ण नारायण | और महाभारत के नायक युवा अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के काल में ही कलियुग का आरम्भ हुआ | तो गीता हम लोगों को कलियुग में जीवन का सही मार्ग दिखने को गाई गयी है | अर्जुन - जो कृष्ण का चिर सखा है - वह भ्रम में पड़ा हो - यह कुछ बात हजम होती नहीं है | प्रभु के दर्शन भर करने को महाज्ञानी महामानव सदियों तपस्या करते हैं - उन प्रभु का चिर सखा मोह में पड़ेगा क्या ? 

"श्रीमद भगवद गीता " का अर्थ है "श्री भगवान् का गाया दिव्य गीत |"
........ यह गीत यहाँ - इस श्लोक से - शुरू होता है |  
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तो कृष्ण कह रहे हैं "तू न सोचने योग्य पर इतना सोच रहा है " -
न सोचने योग्य ???? तो क्या इतनी महामारी जो इस युद्ध से होगी, प्रिय पितामह की संभावित हत्या, गुरुजनों, बेटों, पोतों, चाचों, मामों आदि की संभावित मौत - पूरे परिवार का संभावित महाविनाश - क्या ये बातें "अशोच्यान" हैं ????

आप और मैं सोचें - अपने परिवार को लेकर - अर्जुन को लेकर सोचना बहुत आसान है - वह दूर है - अपने परिवार के बारे में सोचें - ऐसी महाविनाश की स्थिति अपने परिवार पर आये - तो क्या हम विषाद को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? हम सभी सामाजिक प्राणी हैं - सभी के परिवार हैं , साधू सन्यासी तो शायद हम सभी पढने वालों में कोई नहीं होगा - सभी के परिवारों में प्रिय जन हैं | और अर्जुन का तो फिर बहुत विराट परिवार है | प्रपिता से प्रपौत्र तक हैं, १०० तो cousins कौरव ही हैं | इन सभी की मृत्यु सामने खड़ी है - सोचिये कैसा गहरा अवसाद होगा उसके मन में | अर्जुन वैसे ही कुंती पुत्रों में शायद सबसे अधिक emotional है | 
और कृष्ण "अशोच्यान" कह रहे हैं ? 

क्योंकि - short  term  में ये चीज़ें बड़ी हैं, किन्तु इश्वर का viewpoint  short  term  तो नहीं होता न ? Larger perview में देखा जाए - तो हाँ , यह अशोच्यान ही है | long term scheme of events  में ये मृत्युएँ कोई मायने नहीं रखतीं | न भी मारे जाएँ ये सब इस धर्मयुद्ध में, तो किसी और रूप में उसी समय मृत्यु को पायेंगे, जिस समय उन्होंने पायी | कृष्ण महाकाल स्वरुप हैं, हर एक की मृत्यु का समय वे जानते हैं | अर्जुन युद्ध करे, या न करे, मारे, या न मारे - हर एक को अपने समय पर देह त्यागनी ही है | कृष्ण अर्जुन पर निर्भर नहीं हैं इन सबको मारने के लिए | बहुत तरीके हैं सामूहिक संहार के लिए, प्रभु भूकंप भी ला सकते हैं, बाढ़, ज्वालामुखी आदि - कुछ भी | 

नहीं - जोर यहाँ परिणाम (मृत्यु या संहार) पर नहीं है | जोर यहाँ है , कर्त्तव्य पर अडिग रहने और पलायन न करने पर | हर loss की कीमत पर अपना कर्त्तव्य पूरा करने पर stress  है | कोई यह न सोचे कि यदि अर्जुन न भी लड़ता - तो जो जो, जैसे जैसे, और जब जब मरा - उसमे तिल भर भी फर्क आता | उनकी मृत्यु उसी रूप में तय थी, वैसे ही और उसी पल आती !!! बस- उसका निमित्त कोई और होता |

एक बात - गीता के बाहर की है - फिर भी कहूँगी | जब कृष्ण बालसखाओं के संग वन में थे, तब ब्रह्मा जी ने सब बछड़े और ग्वाले छुपा लिए थे - परीक्षा लेने कि यही कृष्ण हैं ? ब्रह्मा तो पल भर में लौट आये अपने समय से, किन्तु यहाँ धरती पर साल बीत गया था | उस साल भर कृष्ण खुद ही उन सभी ग्वालों और बछड़ों का रूप धार कर हर घर में हर माँ और हर गाय को पुत्र सुख देते रहे | तो यहाँ भी वे हर चीज़ अकेले कर सकते हैं | उन्हें अर्जुन के युद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है | आवश्यकता अर्जुन को है अपना धर्म पूरा करने की | 

कृष्ण कह रहे हैं कि तेरी यह पांडित्य भरी बातें पांडित्य नहीं, बल्कि मूर्खता हैं | जो सच ही ज्ञानी होते हैं, वे न जीवित का शोक (चिंता) करते हैं, न मृत का | आगे वे इस पर विस्तार करेंगे |
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जारी 

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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।