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गुरुवार, 30 जुलाई 2015

शिवपुराण २० : गणेश shivapurana20 ganesh

कैलाश पर्वत पर पार्वती माता के कक्ष के द्वार की रक्षा भी शिवजी के ही गण करते थे। लेकिन शिव जी किसी भी समय आएं उनके गण उन्हें भीतर जाने से न रोकते थे और इस कारण पार्वती जी असहज महसूस करती थीं। उनकी सहेलियों को भी यह अच्छा न लगता था और वे माता को समझातीं कि उनकी द्वारसेवा को उनका अपना गण होना चाहिए। तब एक दिन माँ ने मिटटी से (कहीं कहा गया है कि अपनी उबटन से) एक सुंदर बालक की मूरत गढ़ी और उसमें प्राण प्रवाहित कर दिए। बालक ने प्रणाम किया और पूछा - "हे माते - मेरे लिए क्या आज्ञा है ?"उमा जी ने पुत्र को गणेश नाम दिया और एक दण्ड प्रदान करते हुए कहा कि तुम द्वार की रक्षा करो और किसी को भी भीतर न आने देना। बालक द्वार की रक्षा करने लगा और माता जी स्नान को चली गयीं।

इधर शिव जी आये और हमेशा की तरह भीतर जाने लगे। बालक गणेश ने उन्हें रोक कर कहा कि आप भीतर नहीं जा सकते क्योंकि मेरी माता की आज्ञा नहीं है। इस पर शिव जी हँसे और बालक से बोले कि यह मेरी पत्नी का कक्ष है और मैं कभी भी भीतर जा सकता हूँ। मैं शिव हूँ और इस कैलाश का अधिपति हूँ। किन्तु गणेश ने कहा कि मैं सिर्फ अपनी माता को जानता हूँ , शिव कौन हैं यह मुझे नहीं मालूम। आप भीतर नहीं जा सकते हैं। शिव जी थोड़े क्षुब्ध हुए और अपने गणों को इस उद्दंड बालक को राह से हटाने को कहा। गणों ने प्रयास किया किन्तु गणेश ने उनकी दण्ड से पिटाई कर दी :) इस पर भी शिव जी भीतर जाने लगे तो गणेश ने उन्हें भी डंडा लेकर मार दिया।

अब देवतागण और ब्रह्मा विष्णु जी भी वहां आये किन्तु ब्रह्मा जी जब बालक को समझाने गए तो बालक ने उन्हें भी मारना शुरू कर दिया , वे वापस आ गए। देवताओं और शिवगणों ने बालक पर हमले किये किन्तु बालक के आगे सब हार गए।  उधर शक्ति माता भी इस युद्ध को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख रही थीं और पुत्र को अस्त्र शस्त्र प्रदान करती जा रही थीं।

इधर विष्णु जी ने शिव जी से कहा कि यह कोई साधारण बालक नहीं लगता इसे चाल से हराना होगा। तब विष्णु जी ने गणेश पर हमला किया और जब गणेश उनसे युद्ध कर रहे थे तब पीछे से शिव जी ने त्रिशूल से उनका सर काट दिया। त्रिशूल से कटा सर कहीं दूर खो गया और बालक का धड़ मृत होकर गिर पड़ा।

इस प्रकार धोखे से अपने पुत्र की मृत्यु होती देख माता कुपित हुईं और उन्होंने करोड़ों शक्तियां भेज दीं जो देवताओं को खाने लगीं और चहुँ ओर विध्वंस करने लगीं। देवता घबरा गए और माता को मनाने के लिए ब्रह्मा विष्णु महेश्वर से विनती की। किन्तु माता ने कहा कि जब तक मेरा पुत्र पुनर्जीवन न किया जायेगा तब तक मैं शांत नहीं होउंगी। तब शिव जी ने सेवकों को कहा कि आप जाइए और जो पहला जीव दिखे उसका सर लेकर आइये। संयोग से पहला प्राणी एक हाथी मिला और वे लोग उसका सर काट कर ले आये। शिव जी ने सर जोड़ कर बालक को पुनर्जीवित किया किन्तु माता ने कहा कि बालक इससे अधिक का अधिकारी है। तब गणेश "गणपति" (गणों के अधिपति) नियुक्त हुए और साथ ही यह निश्चय हुआ कि वे प्रथम पूज्य होंगे। कोई भी शुभ कार्य उनकी पूजा से ही आरम्भ हो सकेगा।

परिवार सुखपूर्वक कैलाश पर रहता था। एक बार कार्तिकेय और गणेश में पहले किसका विवाह हो इस पर बहस छिड़ गयी। इसकी पूरी कथा इस भाग में है (लिंक)

जारी ………




मंगलवार, 28 जुलाई 2015

शिवपुराण १९ : कार्तिकेय और ताड़कासुर

शिव जी और पार्वती जी के विवाह (लिंक) के उपरांत नवदम्पत्ति लम्बे समय तक हिमवान जी के ही घर में रहे। फिर एक दिन शिव जी ने हिमालय जी और मैना जी से आज्ञा ली और अपनी संगिनी श्री पार्वती जी सहित कैलाश पर लौट आये। दोनों लम्बे समय तक बहुत सुखपूर्वक दाम्पत्य जीवन का आनंद लेते हुए कैलाश पर निवास करते रहे। इधर तारकासुर के संहारक के आने के लिए देवगण व्याकुलता से प्रतीक्षा करते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी से सहायता मांगी और वे सब ब्रह्मा जी को संग लेकर विष्णु जी के पास पहुंचे और उनसे कहा कि विवाह को इतना समय बीतने के बाद भी शिवपुत्र का जन्म अब भी प्रतीक्षित ही है। देवताओं ने विष्णु जी से प्रार्थना की कि वे शिव जी के पास जाएँ और उन्हें अपने विवाह के पीछे के देवकल्याण हेतु की याद दिलाएं। विष्णु जी नवदम्पत्ति के नवजीवन में विघ्न नहीं डालना चाहते थे किन्तु देवताओं के आग्रह पर देवताओं सहित शिवधाम को आये।

देवगणों ने शिव जी के सम्मुख अपनी प्रार्थना की। शिव जी के वीर्य की कुछ बूँदें छिटक कर धरती पर गिरीं और अग्निदेव ने तुरंत पक्षी बन उन्हें चुग लिया। पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हुईं कि मेरी होने वाली संतान की आस में आप लोगों ने विघ्न पहुंचाया है। इस बात पर क्षुब्ध होकर श्री पार्वती जी ने देवताओं को श्रापित किया कि उनकी पत्नियां भी निःसंतान ही रहेंगी।

अग्निदेव तो तेज और ऊष्मा के ही स्वामी देव हैं किन्तु शिव वीर्य के तेज ताप को वे सहन नहीं कर पा रहे थे तब उन्हें शिव जी ने अनुमति दी कि वे इस वीर्य को एक तेजस्विनी स्त्री के गर्भ में स्थापित कर सकते हैं। अग्निदेव ने वीर्य को ६ स्त्रियों के गर्भ में उनके रोमकूपों के माध्यम से पहुंचाया। किन्तु वे भी इसे न धारण कर सकीं , और हिमालय पर बर्फ की ठंडक में इसे त्याग दिया। किन्तु इन बूंदों के ताप ने हिमालय की न ही सिर्फ बर्फ को पिघलाया , बल्कि पत्थरों को पिघला दिया और हिमालय की धरा धातु सी दहकने लगीं। तब इन्हे हिमालय नंदिनी श्री गंगा जी के बहाव सौंपा गया किन्तु जल में तपन आने से शीतल गंगा भी उबल पड़ीं।

गंगा जी की धारा के पास की ईखों सरकंडों के बीच मार्घशीर्ष के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के रोज तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उधर से गुज़रती कृतिकाओं की नज़र बालक पर पड़ी और वे सब उस बालक को अपना दूध पिलाना चाहती थीं और आपस में लड़ पड़ीं। तभी बालक के ६ मुख हुए और सभी माताओं ने प्रसन्नतापूर्वक दुग्धपान करवाया। कृतिकाओं ने अपना दूध पिला कर बालक को पाल पोस कर बड़ा किया। इस कारण बालक "कार्तिकेय" हुए। श्री विश्वामित्र जी ने बालक को "गुहा" नाम दिया और ब्रह्मज्ञान भी दिया - साथ ही आशीष दिया कि वे ब्रह्मर्षि होंगे। अग्निदेव ने बालक को शक्ति नामक अस्त्र प्रदान किया। गुहा क्रौंच पर्वत पर गए और अपने अस्त्र से प्रहार किया। पर्वत बिखरने लगा और उसमे वास करने वाले असुरों ने बालक पर हमला किया जिन्हे बालक ने आसानी से मार दिया। बालक की वीरता सुन कर इंद्र उन पर हमला करने आये। इंद्र ने बालक के पर वज्र प्रहार किया तो दाहिने पक्ष से "शाख" प्रकट हुए, बाहिने अंग से "विशाख" उत्पन्न हुए और छाती पर प्रहार करने से "नैगम" हुए। गुहा और इन तीनों ने इंद्र की तरफ कदम लिए तो देवसेना भाग खड़ी हुई।

एक दिन पार्वती माँ ने शिव जी से प्रश्न किया कि उस दिन जो वीर्य की बूँदें धरा पर छिटकी थीं उनका क्या हुआ। तब शिव जी ने देवताओं से प्रश्न किया और कार्तिकेय के बारे में जान कर अति प्रसन्न हुए। तब शिव जी ने अपने शिवगणों को कृतिकाओं के पास से पुत्र को लाने भेजा और माताओं से अनुमति लेकर कार्तिकेय कैलाश आये। कैलाश पर उत्सव हुआ और देवताओं ने कार्तिकेय जी को अपने अपने अस्त्र और शक्तियां भेंट कीं। शिव जी ने ब्राह्मणों से कार्तिकेय जी का राज्याभिषेक करवाया और तबसे कार्तिकेय कैलाशपुरी के अधिपति हुए।

एक बार नारद जी कार्तिकेय जी के पास आये और यज्ञ के लिए निर्धारित हुई बकरी के खो जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि मैंने संकल्प लिए है और वह बकरी न मिली तो यज्ञ अधूरा रह जाएगा। कार्तिकेय जी ने बकरी तलाशी तो वह धरती पर न थी। उसे खोजते हुए वे विष्णुलोक पहुंचे जहां उसने ऊधम मचा रखा था। वह उनपर अपने सींगों से हमला करने लगी। तब कार्तिकेय जी उसकी पीठ पर सवार हुए और तीनों लोकों से होते हुए उसे वापस ले आये। किन्तु नारद जी ने जब बकरी मांगी तो उन्होंने अखा कि आपका यज्ञ सफल हो ही गया है - अब आप इस बेचारी के प्राण न लीजिये। तब नारद जी प्रसन्न मन से वहां से चले गए।

इधर कार्तिकेय के शौर्य को देख देख कर देवता बहुत प्रसन्न थे। आत्म विश्वास से परिपूर्ण होकर देवताओं ने कार्तिकेय जी से देव सेना के प्रधान बनने का आग्रह किया। उनके नेतृत्व में देवताओं ने तारकासुर पर हमला किया किन्तु उसके सामने देवता फीके थे। इंद्र और सभी लोकपाल उसके आक्रमणों से बेहोश हो गए। श्री वीरभद्र और विष्णु जी भी पराजित हुए। तब कार्तिकेय जी आगे आये तो तारकासुर ने छोटे बालक के पीछे छिपने के लिए देवताओं को धिक्कारा और कहा कि यदि यह बालक युद्ध में मेरे हाथो मार जाए तो आप ही उत्तरदायी होंगे। किन्तु जब युद्ध हुआ तो मुकाबला बराबरी का लगता था। दोनों योद्धा लहू लुहान हुए। फिर कार्तिकेय जी ने शक्ति के प्रहार से तारकासुर का वध किया।


जारी …

बुधवार, 22 जुलाई 2015

शिव पुराण १८ : केतकी और चम्पक के फूल


केतकी और चम्पक के फूल शिव जी को नहीं चढ़ाये जाते। इस भाग में इन फूलों से ही सम्बंधित तीन कथाएं पढ़ते हैं।

१: ब्रह्मा, विष्णु, शिवलिंग और केतकी
२. सीता और केतकी
३. नारद, ब्राह्मण और चम्पक

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१: ब्रह्मा विष्णु शिवलिंग और केतकी

(brahmaa vishnu altercation and shivalinga and the ketaki flower )

पहली कथा है कि प्रलय के बाद जब सृष्टि नहीं हुई थी तब एक बार विष्णु जी और ब्रह्मा जी में बहस छिड़ गयी कि दोनों में कौन बड़ा है, कौन पूजनीय है । उन महाशक्तियों की क्रोधित बहस से संसार डोलने लगा। देवगण दौड़े हुए शिव जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी।

शिव जी उन दोनों के मध्य प्रकाश लिंग के रूप में प्रकट हुए और गंभीर शब्द हुआ कि आप दोनों इस प्रकाश स्तम्भ का ओर छोर खोजिये। जो खोज ले वही महानतम होगा।

तब ब्रह्मा जी ने श्वेत हंस का रूप लिया और विष्णु जी ने श्वेत वराह का। हंस रूपी ब्रह्मा ऊपर को उड़ चले और वराह के रूप में विष्णु जी नीचे को गए। लम्बे समय बाद भी दोनों को कोई अंत न मिला। तब विष्णु जी लौट आये। किन्तु ब्रह्मा जी जब ऊपर जाते थे तो उन्हें ऊपर से गिरता केतकी का फूल मिला।ब्रह्मा जी ने केतकी से पूछा क्या तुम शीश से आई हो? केतकी ने कहा इस प्रकाश लिंग का कोई अंतिम सिरा है ही नहीं, यह अनादि अनंत है। जहां से मैं गिरा हूँ उससे भी बहुत ऊपर तक यह प्रकाश स्तम्भ दीखता है। कहाँ तक है इसका कोई पता नहीं।

ब्रह्मा जी ने केतकी से कहा कि हमारी स्पर्धा में मैं हारना नहीं चाहता। सो मैं कहूँगा कि मैंने सिरे को पा लिया और तुम्हे वहीँ से लाया हूँ। तुम साक्ष्य देना। केतकी मान गई। वे दोनों वहां लौटे जहां विष्णु जी थे। ब्रह्मा जी की बात और केतकी के प्रमाण पर विश्वास कर विष्णु जी ने ब्रह्मा जी को पूज्य स्वीकार किया। तब वहां शिव जी प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि जब हमारा कोई सिरा है ही नहीं तब आपने सिरा कैसे पाया ? पूज्य होने के लोभ में आपने हमारे अंत को पाने के संदर्भ में असत्य कहा। सो अब धरती पर आप की पूजा नहीं होगी। और केतकी ने भी इस झूठ में समर्थन दिया था सो यह फूल हमारी अर्चना में कभी स्वीकार्य नहीं होगा। तब से केतकी के फूल शिव जी को नहीं चढ़ाये जाते।

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कथा २: सीता और केतकी :
(Seeta and the ketaki flower)

कथा सुनाते हुए श्री रोमहर्षण जी ने कहा कि शिवपूजा में कभी भी केतकी या चम्पक प्रयुक्त नहीं किये जाने चाहिए। मुनियों ने कारण पूछा तब उन्होंने यह कथाऐं कही।

जब श्री राम सीता और लक्ष्मण वन को चले गए तो यह दुःख श्री दशरथ जी के लिए असह्य हो गया। जीवन जीने की जिजीविषा त्याग उन्होंने स्वर्ग को प्रस्थान किया। यह खबर चित्रकूट पहुंची जहां श्री राम पत्नी और भाई सहित पर्णकुटी में निवास कर रहे थे। श्री राम दशरथ जी के ज्येष्ठ पुत्र थे और उन्हें अपरा अनुष्ठान करने थे। राम जी ने लक्ष्मण जी को सामग्रियाँ लेने गाँव भेजा किन्तु वे समय से न लौटे। दोपहर होती देख श्री राम स्वयं ही सामग्री लेने चले किन्तु उन्हें भी देर हो गयी। दोपहर से पहले संस्कार करना आवश्यक था और दोनों भाई अब तक न आये थी। सीता बहुत चिंतित थीं। आखिर समय बीतता देख सीता जी ने स्वयं ही संस्कार करने का निर्णय लिया। उन्होंने फाल्गु नदी में स्नान किया और भीगे वस्त्रों में मिटटी का दिया जलाकर पूर्वजों को पिंड अर्पित किया।

तुरंत आकाश वाणी हुई कि हे सीता , हम तुम्हारे चढ़ावे से प्रसन्न हैं और तुम्हे आशीष देते हैं (जो नारीवादी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति स्त्री को श्राद्ध आदि का अधिकार नहीं देती वे कृपया ध्यान दें - सीता जी ने स्वयं यह अनुष्ठान किया था)। तब आकाश से दो हाथ प्रकट हुए जिन्होंने सामग्री स्वीकार की। सीता जी ने अपने आप को सम्हाला और आकाशवाणी से प्रश्न किया कि आअप कौन हैं ? शब्द हुआ कि हम ही अयोध्या पति दशरथ हैं और आपके श्वसुर हैं। हम संस्कार से तृप्त हैंआपका तर्पण स्वीकार कर रहे हैं। सीता ने चकित हो कर पूछा - हे पिताश्री। आपके सुपुत्र श्री राम और लक्ष्मण मेरी इस बात पर कैसे विश्वास करेंगे कि आकाश से हाथ आये और उन्होंने पिंडदान स्वीकारा ? वे हँसेंगे कि मैंने कैसे ऐसे हाथों को हमारे पिता दशरथ जी के हाथ मान लिया ?
श्री दशरथ बोले कि जब यह सत्य है ही तो उन्हें मानना ही होगा। फिर भी तुम चाहो तो तुम्हारे चार साक्षी होंगे। ये फाल्गु नदी जो बाह रही है , वह गाय जो वहां चर रही है , ये अग्नि जिससे तुमने यह संस्कार किया , और यह केतकी की झाडी जिसमे केतकी के फूल खिले हैं। इसके बाद वाणी थम गयी और हाथ अंतर्ध्यान हुए ।

शीघ्र ही श्री राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटे और उन्होंने सामग्री सीता को देकर जल्दी पकाने को कहा , क्योंकि बहुत समय हो चला था। बार बार कहने पर भी वे दोनों न माने कि सीता जी संस्कार कर चुकी हैं। चारों साक्षियों ने भी मना कर दिया कि उन्होंने कुछ नहीं देखा। तब सीता जी ने पति के कहने पर वह सामग्री पकाई और तब श्री राम तर्पण करने लगे। दोबारा आकाशवाणी हुई कि सीता श्राद्ध कर तो चुकी हैं और हम उनके तर्पण को स्वीकार भी कर चुके हैं। तब आप दोबारा हमें क्यों पुकारते हैं? किन्तु श्री राम को विश्वास नहीं हुआ और उन्होंने साक्ष्य माँगा । तब वाणी ने कहा कि जब हम सूर्यवंशी हैं तो आप सूर्यदेव से ही पूछ लें। तब सूर्यदेव ने कहा कि सीता सत्य कह रही हैं और चारों साक्षी असत्य कह रहे थे (नारीवादी ध्यान दें - श्री सीता जी स्त्री हैं - उनकी बात सत्य और अग्नि और गौ जैसे साक्षियों को अविश्वसनीय माना गया)।
श्री राम और लक्ष्मण जी ने श्री सीता जी से उन पर अविश्वास जताने के लिए क्षमा मांगी। अब सीता जी ने उनकी बात तो स्वीकारी किन्तु स्वयं को झूठा साबित करने दिए चारों साक्षियों को दंड में श्राप दिया ।

१. फाल्गु नदी श्रापित हुई कि अब वह सिर्फ भूगर्भ में बहेगी, बाहर नहीं।
२. केतकी कभी शिव जी को नहीं चढ़ाई जायेगी , चढ़ाई भी जाए तो अस्वीकृत होगी।
३. गाय ने अपने मुंह से झूठ कहा था। तो गाय का का मुंह अब से अशुद्ध माना जाएगा (बाकी शरीर पहले ही की तरह शुद्ध मान्य होगा - दूध, गोमूत्र और गोबर भी। )
४. अग्निदेव भी भय से काँप रहे थे कि उन्हें क्या श्राप मिलेगा। सीता जी ने कहा कि आप अब से हर वस्तु को अविवेकी होकर ग्रहण कर लेंगे - चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध।

तबसे केतकी के फूल शिव जी को नहीं चढ़ाये जाते।
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चम्पक का पेड़ और नारद
(Narada and the champak tree )

गोकर्णं में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है। एक बार नारद जी वहां आये और वे शिव जी की पूजा करना चाहते थे। राह में उन्होंने एक चम्पक का पेड़ देखा जो बहुत सुंदर फूलों से लदा हुआ था। नारद प्रसन्न मन से उसे देख रहे थे कि ये फूल शिव जी के लिए लेकर जाएँ। तभी एक ब्राह्मण वहां आया किन्तु नारद जी के सामने फूल तोड़ने में संकोच में पड़ गया। नारद जी ने पूछा - हे ब्राह्मण , आप कहाँ जाते हैं ? ब्राह्मण ने झूठ ही कह दिया कि मैं भिक्षा मांगने जा रहा हूँ। तब नारद जी मंदिर को गए और उनके जाते ही ब्राह्मण ने सारे फूल तोड़ लिए। अपनी डलिया को वस्त्र से ढंक कर वह लौटने लगा तो मंदिर से लौटते नारद जी से फिर भेंट हुई। नारद जी ने फिर पूछा अब कहाँ जाते हो ? तो फिर ब्राह्मण ने फिर झूठ कहा - घर जाता हूँ। नारद जी को विश्वास न हुआ। उन्होंने चम्पक पेड़ से प्रश्न किया - क्या उस ब्राह्मण ने तुम्हारे फूल लिए ? चम्पक ने कहा - "क्या? कौन ब्राह्मण? आप किसकी बात कर रहे हैं ? मैं किसी ब्राह्मण को नहीं जानता। "

तब नारद जी वापस मंदिर गए जहां उन्होंने वे ही फूल शिवलिंग पर देखे। तब उन्होंने वह प्रार्थना करते दूसरे भक्त से पूछा कि ये फूल कौन लाया था?

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया - वही दुष्ट ब्राह्मण लाया था जो अभी आपके आगे आगे आया। वह रोज़ चम्पक पुष्पों से शिव पूजा करता है और शिव जी की उस पर कृपा है। इस शिव कृपा के कारण उसने गोकर्ण के राजा को अपने चंगुल में ले रखा है और बहुत धन सम्पत्ति बनाई है। वह दुसरे ब्राह्मणों का अपमान भी करता है।

तब नारद जी ने शिव जी से प्रश्न किया कि आप क्यों ऐसे दुष्ट का साथ देते हैं ? शिव जी बोले कि यदि कोई चम्पक पुष्पों से मेरी पूजा करे तो मैं कुछ नहीं कर सकता - मुझे उसकी पूजा स्वीकार करनी ही होगी।
तब नारद जी ने सोचा ऐसे दुष्टों को शिव जी से दूर रखना आवश्यक है। उन्होंने झूठ बोलने वाले चम्पक को श्रापित किया कि अब कभी चम्पक फूल शिव जी को नहीं चढ़ेंगे। और उस ब्राह्मण को अगले जन्म में राक्षस होने का श्राप मिला। अगले जन्म में राक्षस हुआ वह ब्राह्मण शिव जी के ही हाथों से मृत्यु को प्राप्त हुआ और पुनः ब्राह्मण हुआ।

शनिवार, 4 जुलाई 2015

upsc परीक्षा में लड़कियों ने बाजी मारी। क्यों?

यह पोस्ट पूरीपढ़े बिना ओपिनियन न बनाइये कि मैं क्या कह रही हूँ।

सब जगह पढ़ रही हूँ आईएस में टॉप 4 लड़कियाँ/ पहले भी ऐसा पढ़ती सुनती रही कि यहाँ लड़कियां वहां लड़कियाँ।ऐसे कवरेज है जैसे कोई जश्न की बात हो। लेकिन मुझे यह कुछ ठीक नही लगता।क्यों? 

क्योंकि यदि यह कोई गर्व की बात नहीं कि माँ हमेशा इस बात पर खुश हो कि बेटे ने बेटी को मात दे दी ; तो उसी तरह हर बार इस पर खुश होना भी गलत है कि बेटी ने बेटे को। नारी बराबरी होनी चाहिए लेकिन इस का अर्थ बेटों को नीचा बना कर बेटियों पर फख्र करना नहीं है। 

फिर इस साल किसी बोर्ड रिज़ल्ट पर टीवी चैनलों पर मैदान मारने सा सेलिब्रेशन था कि "आखिर इस बार पछाड़ ही दिया लड़कों ने लड़कियों को" - यूँ लगा कि कोई "शत्रु" बरसों से "हमें" हराता रहा आखिर हम ने उसे मात दे ही दी। दुःख हुआ।

आपको कभी यह ख्याल नहीं आया कि क्यों? लड़कियां आगे क्यों निकलती हैं हर बार? और इस बार ऐसा क्यों?

नारीवाद और पुरुषवाद से इतर सोचिये। क्यों? क्यों आखिर??

इसलिए कि वे प्रेशर में हैं। वे अपने आप को प्रूव कर रही हैं।उनपर शायद sabconscious प्रेशर है कि उन्हें पढ़ने का "मौक़ा?" देकर उनके परिवार/ समाज/ समाज सुधारक/ आदि आदि ने जो "अहसान स्त्री जाति" पर किया है उसे उन्हें सिद्ध करना है। उन्हें प्रूव करना है कि वे इस लायक हैं। 

वे क्यों अव्वल आती हैं बार बार सोचिये? probability से तो ऐसा नहीं होना चाहिए न? क्यों नहीं वे पढाई को in my stride ले पातीं? क्यों उनपर अव्वल आने का इतना दबाव है कि बार बार बार बार बार यह पैटर्न रिपीट हो? 

लड़कियों - इस प्रेशर को परे करो। हाँ!!! ज़रूर आओ अव्वल। बहुत अच्छा है। हर बार आओ तो भी बहुत अच्छा है। लेकिन हर बार आना "जरूरी" नहीं। एन्जॉय यूर लाइफ। पढाई करो कि यह भली है। लेकिन अव्वल आने का प्रेशर न हो तो और अच्छी।

और मित्रों। मैं ईश्वर नहीं। मैं गलत हो सकती हूँ। मुझे बस ऐसा लगा तो मैंने लिखा। इस पोस्ट को नारीवाद या पुरुषवाद से न जोड़ें। दोनों बच्चे हमारे हैं। क्या लड़की क्या लड़का। मानती हूँ यह कोइन्सिडेंस हो सकता है किन्तु प्रोबेबिलिटी लॉज़ नहीं कहतीं कि कोइन्सिडेंस से हर बार एक ही सम्भावना पूर्ण होती रहे। कहीं कुछ गड़बड़ तो है ही।सोचियेगा? 

प्रोबेबिलिटी थियरि से दोनों आउटकम बराबर होने चाहिए।

When any "random" event is done in "fair" circumstances with "2" possible outcomes; the probability of occurrence of "any one of the two outcomes" is 1/2

90% occurrence of any one of two possible outcomes suggests that there is an unfairness built in somewhere. We need to analyse this. Instead of being almost proud of it.


Every year every exam - no. There is something definitely and seriously wrong here. Which we are trying to avoid looking at by convincing ourselves that it is normal.